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हिन्दू काल गणना / मन्वन्तर

★★★ काल गणना ★★★ कुल 14 मन्वन्तर वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर 1 मन्वन्तर = 71 चतुर्युगी 14×71= 994 +6 सृष्टि निर्माण 1 कल्प = 1000 चतुर्युग 1 चतुर्युगी = चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग) चारों युगों की आयु : सतयुग = 17,28,000 वर्ष त्रेतायुग = 12,96,000 वर्ष द्वापरयुग =  8,64,000 वर्ष कलियुग =   4,32,000 वर्ष  1 चतुर्युगी= 43,20,000 वर्ष  1 कल्प = 4,320,000,000 ब्रह्मा का 1 दिन और 1 रात = 2 कल्प ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष / 50 वर्ष पूर्ण ब्रह्मा का सम्पूर्ण जीवन = विष्णु का 1 दिन और उतनी ही रात 311,040,000,000,000 ब्रह्मा की आयु 71×43,20,000              306,720,000 वर्ष = 1 मन्वन्तर सृष्टि की कुल आयु 14 ×306,720,000              4,294,080,000 वर्ष वर्तमान आयु 6 मन्वन्तर           1,840,320,000 27 चतुर्युग             116,640,000 3   युग                        3,888,000  कलयुग     3109 ई.पू+ 2022=  5131                            1,960,853,131 वर्ष पुराणों में चौदह मन्वंतर इस प्रकार हैं- स्वायंभुव स्वारोचिष उत्तम तामस रैवत चाक्षुष वैवस्वत (वर्तमान) अर्क सावर्णि दक्ष सावर्णि ब्रह्म

आदित्यह्रदय स्त्रोत

आदित्यहृदय स्तोत्र' विनियोग ॐ अस्य आदित्य हृदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषिर अनुष्टुपछन्दः, आदित्येहृदय भूतो भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेष विघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः। ऋष्यादिन्यास ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे। आदित्य हृदय भूत ब्रह्म देवतायै नमः हृदि। ॐ बीजाय नमः, गुह्यो। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो। ॐ तत्सवितुर इत्यादि गायत्री कीलकाय नमः नाभौ। करन्यास ॐ रश्मिमते अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवरवते अनामिकाभ्यां नमः। ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। हृदयादि अंगन्यास ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्। ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। आदित्यहृदय स्तोत्र पूर्व पिठिता  ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥ दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्य

Kaal sarpa yoga / कलसर्प योग विशेष

कालसर्प योग कुंडली मे देखना बहुत सरल है यदि राहु केतु के मध्य सभी ग्रह आ जाए अर्थात एक प्रकार से राहु केतु सभी ग्रह को लॉक कर दे तो काल सर्प योग बनता है । ये 12 भावो के अनुरूप 12 प्रकार से ही बनता है और अन्य ग्रहों की विभिन्न भावों में उपस्थिति के आधार पर ये 250 प्रकार से अधिक भी बताए गए है । जिनके अलग अलग नाम व परिणाम होते है। वैसे देखा जाए तो पुराने मूल या वैदिक ज्योतिष शास्त्रों में कालसर्प दोष का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन वर्तमान ज्योतिष में इसे प्रमुख स्थान प्राप्त है । मानसागरी ग्रन्थ में सर्पदंश योग मिलता है अध्य्याय 4 श्लोक 125 लग्नाण्य सप्तमस्थाने शन्यको राहुसंयुतौ। सर्पेण पीडा तस्योक्ता शय्यायां स्वपतोऽपि च ॥ अर्थात लग्न से सप्तम भाव में शनि , सूर्य और राहु स्थित हों तो विस्तर पर सोते हुये भी सर्प से पीडित होता है । अर्थात् सर्पदंश से व्यक्ति पीड़ित होता है  कालसर्पयोग हमेशा जातक को नुकसान ही नही देता ये योग जिसकी कुंडली मे हो उसे अपार सफलता भी दिलाता है । •जातक एकाग्रचित्त होकर कार्य करता है •जातक को कठिन परिश्रम करना पड़ता है जिससे उसके व्यक्तित्व में निखार व अपा

शम्भुस्तुति॥ shambhu stuti

 शम्भुस्तुती नमामि शम्भो नमामि शम्भो  नमामि शम्भो नमामि शम्भो नमामि शम्भुं पुरुषं पुराणं नमामि सर्वज्ञमपारभावम् । नमामि रुद्रं प्रभुमक्षयं तं नमामि शर्वं शिरसा नमामि ॥१॥ नमामि देवं परमव्ययंतं उमापतिं लोकगुरुं नमामि । नमामि दारिद्रविदारणं तं नमामि रोगापहरं नमामि ॥२॥ नमामि कल्याणमचिन्त्यरूपं नमामि विश्वोद्ध्वबीजरूपम् । नमामि विश्वस्थितिकारणं तं नमामि संहारकरं नमामि ॥३॥ नमामि गौरीप्रियमव्ययं तं नमामि नित्यं क्षरमक्षरं तम् । नमामि चिद्रूपममेयभावं त्रिलोचनं तं शिरसा नमामि ॥४॥ नमामि कारुण्यकरं भवस्या भयंकरं वापि सदा नमामि । नमामि दातारमभीप्सितानां नमामि सोमेशमुमेशमादौ ॥५॥ नमामि वेदत्रयलोचनं तं नमामि मूर्तित्रयवर्जितं तम् । नमामि पुण्यं सदसद्व्यतीतं नमामि तं पापहरं नमामि ॥६॥ नमामि विश्वस्य हिते रतं तं नमामि रूपाणि बहूनि धत्ते । यो विश्वगोप्ता सदसत्प्रणेता नमामि तं विश्वपतिं नमामि ॥७॥ यज्ञेश्वरं सम्प्रति हव्यकव्यं तथागतिं लोकसदाशिवो यः । आराधितो यश्च ददाति सर्वं नमामि दानप्रियमिष्टदेवम् ॥८॥ नमामि सोमेश्वरंस्वतन्त्रं उमापतिं तं विजयं नमामि । नमामि विघ्नेश्वरनन्दिनाथं पुत्रप्रियं तं शिरसा नमामि

अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला

 ॥ अथ दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला ॥ दुर्गा दुर्गार्ति शमनी दुर्गापद्वि निवारिणी। दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी॥ दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा। दुर्गम ज्ञानदा दुर्ग दैत्य लोक दवानला॥ दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्म स्वरूपिणी। दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता॥ दुर्गमज्ञान संस्थाना दुर्गम ध्यानभासिनी। दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थ स्वरूपिणी॥ दुर्गमा सुर संहन्त्री दुर्गमा युध धारिणी। दुर्गमाङ्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्‍वरी॥ दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी। नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः॥ पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशयः॥ ॥ इति दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला सम्पूर्णम् ॥

एकादशी/ग्यारस को चावल क्यों नही खाना चाहिए

प्रश्न: आखिर क्यों एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित माना जाता है? महर्षि मेधा को ही चावल का रूप माना गया हे । पौराणिक कथा के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया और उनका अंश पृथ्वी में समा गया। चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्न हुए इसलिए चावल और जौ को जीव माना जाता है।

सुंदरकाण्ड का नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया?

प्रश्न: आखिर क्यों सुंदरकाण्ड का नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया? हनुमानजी, सीताजी की खोज में लंका गए थे । और लंका त्रिकुटाचल पर्वत (tripura mountain) पर बसी हुई थी। त्रिकुटाचल पर्वत यानी यहां 3 पर्वत । पहला सुबैल पर्वत, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत, जहां अशोक वाटिका (ashok vatika) निर्मित थी। इसी अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी (mata sita ji) की भेंट हुई थी। इस काण्ड की यही सबसे प्रमुख घटना थी, इसलिए इसका नाम #सुंदरकाण्ड रखा गया है । जय श्री राम जी की 🙏🙏🙏🙏